कोई हर गाम पे सौ दाम बिछा जाता है
रास्ते में कोई दीवार उठा जाता है
मौत की वादी-ए-ज़ुल्मत में अलम खोले हुए
कारवाँ ज़ीस्त का बढ़ता ही चला जाता है
Rahat Indori
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परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
रंग पर रंग निखरते ही चले आते हैं
किस क़दर नूर-ए-सहर देख के शरमाते हैं
फ़रोग़-ए-दीदा-ओ-दिल लाला-ए-सहर की तरह
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है
काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए
मौत की आग में तप तप के निखरती है हयात
दोस्ती का हाथ
लग़्ज़िश-ए-गाम लिए लग़्ज़िश-ए-मस्ताना लिए
बैठे हैं जहाँ साक़ी पैमाना-ए-ज़र ले कर
कभी पहलू में समुंदर के तड़प उठती हैं