क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझ से
ज़िंदगी ने भी बहुत दूर का रिश्ता रक्खा
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आँखों का पूरा शहर ही सैलाब कर गया
ख़ाक हो कर भी कब मिटूंगा मैं
उन की आमद है गुल-फ़िशानी है
जज़्ब कुछ तितलियों के पर में है
मैं भी बिखरा हुआ हूँ अपनों में
जब से देखा है ख़्वाब में उस को
सब सितारे दिलासा देते हैं
बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
चीख़ की ओर मैं खिंचा जाऊँ
साँस लेते हुए डर लगता है
बुझे लबों पे तबस्सुम के गुल सजाता हुआ