जब से देखा है ख़्वाब में उस को
दिल मुसलसल किसी सफ़र में है
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फूल से ज़ख़्मों का अम्बार सँभाले हुए हैं
उन की आमद है गुल-फ़िशानी है
ज़रा भी काम न आएगा मुस्कुराना क्या
ख़ाक हो कर भी कब मिटूंगा मैं
सवालों में ख़ुद भी है डूबी उदासी
वो बे-असर था मुसलसल दलील करते हुए
आँखों का पूरा शहर ही सैलाब कर गया
क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझ से
हम मुसलसल इक बयाँ देते हुए
बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
जाने किस बात से दुखा है बहुत