मिला भी ज़ीस्त में क्या रन्ज-ए-रह-गुज़ार से कम
मिला भी ज़ीस्त में क्या रन्ज-ए-रह-गुज़ार से कम
सो अपना शौक़-ए-सफ़र भी नहीं ग़ुबार से कम
तिरे फ़िराक़ में दिल का अजीब आलम है
न कुछ ख़ुमार से बढ़ कर न कुछ ख़ुमार से कम
हँसी-ख़ुशी की रफ़ाक़त किसी से क्या चाहें
यहाँ तो मिलता नहीं कोई ग़म-गुसार से कम
वो मुंतज़िर है यक़ीनन हवा-ए-सरसर का
जो हब्स हो न सका बाद-ए-नौ-बहार से कम
बुलंदियों के सफ़र में क़दम ज़मीं पे रहें
ये तख़्त-ओ-ताज भी होते नहीं हैं दार से कम
अजीब रंगों से मुझ को सँवार देती है
कि वो निगाह-ए-सताइश नहीं सिंघार से कम
मिरी अना ही सदा दरमियाँ रही हाएल
वगर्ना कुछ भी नहीं मेरे इख़्तियार से कम
वो जंग जिस में मुक़ाबिल रहे ज़मीर मिरा
मुझे वो जीत भी 'अम्बर' न होगी हार से कम
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