फूल खिले हैं लिखा हुआ है तोड़ो मत
और मचल कर जी कहता है छोड़ो मत
Wasi Shah
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ख़्वाहिशों की बिजलियों की जलती बुझती रौशनी
कौन है ये मतला-ए-तख़ईल पर महताब सा
तुम और हम
छूते ही आशाएँ बिखरीं जैसे सपने टूट गए
उबाल
उन आँखों में डाल कर जब आँखें उस रात
कहने को शम-ए-बज़्म-ए-ज़मान-ओ-मकाँ हूँ मैं
मामूल
ऐनक के दोनों शीशे ही अटे हुए थे धूल में
आता हूँ मैं ज़माने की आँखों में रात दिन
तशन्नुज