ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
ख़ुद को समेटने में बिखरना पड़ा मुझे
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गुम-शुदा
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलक
शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
बन के साया ही सही सात तो होती होगी
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका
काँधों से ज़िंदगी को उतरने नहीं दिया
कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
कभी तो बनते हुए और कभी बिगड़ते हुए
यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया