अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलक
और उस तरफ़ तमाम ज़माना उसी का है
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गुम-शुदा
धूप में कौन किसे याद किया करता है
शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
ख़ुद को हर आरज़ू के उस पार कर लिया है
काँधों से ज़िंदगी को उतरने नहीं दिया
जो शाम होती है हर रोज़ हार जाता हूँ
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
इस बार राह-ए-इश्क़ कुछ इतनी तवील थी
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका