इस बार राह-ए-इश्क़ कुछ इतनी तवील थी
उस के बदन से हो के गुज़रना पड़ा मुझे
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अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलक
यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
गुम-शुदा
धूप में कौन किसे याद किया करता है
बन के साया ही सही सात तो होती होगी
जो शाम होती है हर रोज़ हार जाता हूँ
मज़ीद इक बार पर बार-ए-गिराँ रक्खा गया है
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका