शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है
तीरगी हर सम्त फैला कर हवा ख़ामोश है
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ख़ुद को हर आरज़ू के उस पार कर लिया है
हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका
कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
काँधों से ज़िंदगी को उतरने नहीं दिया
यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया
अब इस जहान-ए-बरहना का इस्तिआरा हुआ
छुप जाता है फिर सूरज जिस वक़्त निकलता है