न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
हम अपनी प्यास को ले कर दहन में लौट आए
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यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया
वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका
अपनी तरफ़ तो मैं भी नहीं हूँ अभी तलक
छुप जाता है फिर सूरज जिस वक़्त निकलता है
कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
कभी तो बनते हुए और कभी बिगड़ते हुए
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
धूप में कौन किसे याद किया करता है