धूप में कौन किसे याद किया करता है
पर तिरे शहर में बरसात तो होती होगी
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कि जैसे कोई मुसाफ़िर वतन में लौट आए
बन के साया ही सही सात तो होती होगी
ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा
यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया
छुप जाता है फिर सूरज जिस वक़्त निकलता है
न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
मज़ीद इक बार पर बार-ए-गिराँ रक्खा गया है
जो शाम होती है हर रोज़ हार जाता हूँ
कभी तो बनते हुए और कभी बिगड़ते हुए