मिरे घर में तो कोई भी नहीं है
ख़ुदा जाने मैं किस से डर रहा हूँ
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जश्न-ए-बहार-ए-नौ है नशेमन की ख़ैर हो
लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं
पूछा है ग़ैर से मिरे हाल-ए-तबाह को
दर्द का शहर कहीं कर्ब का सहरा होगा
दिल में बे-नाम सी ख़ुशी है अभी
सुब्ह तक मैं सोचता हूँ शाम से
बसर होना बहुत दुश्वार सा है
मुझ से बच बच के चली है दुनिया
न पूछ मंज़र-ए-शाम-ओ-सहर पे क्या गुज़री
उन की बे-रुख़ी में भी इल्तिफ़ात शामिल है
मुज़्तरिब हैं मौजें क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
कहीं सलीब कहीं कर्बला नज़र आए