मैं ने क्यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ की जसारत की है
तुम अगर ग़ौर करोगे तो पशीमाँ होगे
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इतना बेदारियों से काम न लो
सुना है अब भी मिरे हाथ की लकीरों में
कहीं सलीब कहीं कर्बला नज़र आए
क़त्ल हो तो मेरा सा मौत हो तो मेरी सी
नदी के पार उजाला दिखाई देता है
नज़र आने से पहले डर रहा हूँ
आज की रात भी गुज़री है मिरी कल की तरह
उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
नज़र में हर दुश्वारी रख
ज़िंदगी और हैं कितने तिरे चेहरे ये बता
मेरी पहचान है क्या मेरा पता दे मुझ को
मैं क्या जानूँ घरों का हाल क्या है