जो हो सका न मिरा उस को भूल जाऊँ मैं
पराई आग में क्यूँ उँगलियाँ जलाऊँ मैं
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ख़ुदा भी मेरी तरह बा-कमाल ऐसा था
इतना सन्नाटा है कुछ बोलते डर लगता है
अन-कहे लफ़्ज़ों में मतलब ढूँढता रहता हूँ मैं
हुए असीर तो फिर उम्र भर रिहा न हुए
इक धमाके से न फट जाए कहीं मेरा वजूद
शहर-दर-शहर फ़ज़ाओं में धुआँ है अब के
अन-कहे लफ़्ज़ों का मतलब ढूँढता रहता हूँ मैं