अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ भी थी परवाना भी
रात के आख़िर होते होते ख़त्म था ये अफ़्साना भी
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फिर चाहे तो न आना ओ आन बान वाले
राहबर रहज़न न बन जाए कहीं इस सोच में
मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
ये दास्तान-ए-दिल है क्या हो अदा ज़बाँ से
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
हल्का था नदामत से सरमाया इबादत का
हैं देस-बिदेस एक गुज़र और बसर में
मिसाल-ए-शम्अ अपनी आग में क्या आप जल जाऊँ
ख़ाली बैठे क्यूँ दिन काटें आओ रे जी इक काम करें
भोले बन कर हाल न पूछो बहते हैं अश्क तो बहने दो