मिसाल-ए-शम्अ अपनी आग में क्या आप जल जाऊँ
क़िसास-ए-ख़ामुशी लेगी कहाँ तक ऐ ज़बाँ मुझ से
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नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
जिस क़दर नफ़रत बढ़ाई उतनी ही क़ुर्बत बढ़ी
न कर तलाश-ए-असर तीर है लगा न लगा
हम को इतना भी रिहाई की ख़ुशी में नहीं होश
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
हाथ से किस ने साग़र पटका मौसम की बे-कैफ़ी पर
ख़ाली न अंदलीब का सोज़-ए-नफ़स गया
इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
वाए ग़ुर्बत कि हुए जिस के लिए ख़ाना-ख़राब
भोले बन कर हाल न पूछो बहते हैं अश्क तो बहने दो
एक दिल पत्थर बने और एक दिल बन जाए मोम
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी