ख़ाली न अंदलीब का सोज़-ए-नफ़स गया
वो लू चली कि रंग गुलों का झुलस गया
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हर नफ़स इक शराब का हो घूँट
वाए ग़ुर्बत कि हुए जिस के लिए ख़ाना-ख़राब
कुछ दिन की रौनक़ बरसों का जीना
ख़ाली बैठे क्यूँ दिन काटें आओ रे जी इक काम करें
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
ख़ुशबू कहीं छुपी है मोहब्बत के फूल की
पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
करम उन का ख़ुद है बढ़ कर मिरी हद्द-ए-इल्तिजा से
हर टूटे हुए दिल की ढारस है तिरा वअ'दा
जिस क़दर नफ़रत बढ़ाई उतनी ही क़ुर्बत बढ़ी
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने