हर नफ़स इक शराब का हो घूँट
ज़िंदगानी हराम है वर्ना
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ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है
मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
तुम्हें क्या काम नालों से तुम्हें क्या काम आहों से
कानों की ग़रज़ कलाम बतलाता है
मोहब्बत नेक-ओ-बद को सोचने दे ग़ैर-मुमकिन है
कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
क्यूँ किसी रह-रौ से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
गोरे गोरे चाँद से मुँह पर काली काली आँखें हैं
वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
दोस्त ने दिल को तोड़ के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दिया
निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़