कानों की ग़रज़ कलाम बतलाता है
आँखें क्यूँ हैं नज़र ख़ुद जाता है
क्या क्या दरकार है ये में क्यूँ सोचूँ
तू ख़ुद हर चीज़ दे के समझाता है
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पियूँ ही क्यूँ जो बुरा जानूँ और छुपा के पियूँ
वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएँगे
हुस्न से शरह हुई इश्क़ के अफ़्साने की
जिस क़दर नफ़रत बढ़ाई उतनी ही क़ुर्बत बढ़ी
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
कम जो ठहरे जफ़ा से मेरी वफ़ा
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी
जो बुत है यहाँ अपनी जा एक ही है
इस छेड़ में बनते हैं होश्यार भी दीवाने
फिर चाहे तो न आना ओ आन बान वाले
आँख से दिल में आने वाला