तू कहता है ख़ालिक़-ए-शर-ओ-ख़ैर नहीं
मैं कहता हूँ ख़ाली हरम-ओ-दैर नहीं
सच है तिरा कहना तो मुझे कुछ नहीं ख़ौफ़
सच है मिरा कहना तो तिरी ख़ैर नहीं
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इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
दफ़अतन तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी रुस्वाई है
वो बन कर बे-ज़बाँ लेने को बैठे हैं ज़बाँ मुझ से
तड़पते दिल को न ले इज़्तिराब लेता जा
नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
कहीं सर पटकते दीवाने कहीं पर झुलसते परवाने
अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से
मुझ को दिल क़िस्मत ने उस को हुस्न-ए-ग़ारत-गर दिया
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
दूर थे होश-ओ-हवास अपने से भी बेगाना था
वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
ख़ुशबू कहीं छुपी है मोहब्बत के फूल की