दफ़अतन तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी रुस्वाई है
उलझे दामन को छुड़ाते नहीं झटका दे कर
Javed Akhtar
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Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Gulzar
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यही इक निबाह की शक्ल है वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ
ये गुल खिल रहा है वो मुरझा रहा है
बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है
फ़ज़ा महदूद कब है ऐ दिल-ए-वहशी फ़लक कैसा
दो तुंद हवाओं पर बुनियाद है तूफ़ाँ की
जोश-ए-जुनूँ में वो तिरे वहशी का चीख़ना
न कर तलाश-ए-असर तीर है लगा न लगा
वफ़ा तुम से करेंगे दुख सहेंगे नाज़ उठाएँगे
न कोई जल्वती न कोई ख़ल्वती न कोई ख़ास था न कोई आम था
इस पार से यूँ डूब के उस पार गए
कह के ये और कुछ कहा न गया