कह के ये और कुछ कहा न गया
कि मुझे आप से शिकायत है
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हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर
दफ़अतन तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी रुस्वाई है
करम उन का ख़ुद है बढ़ कर मिरी हद्द-ए-इल्तिजा से
नज़र उस चश्म पे है जाम लिए बैठा हूँ
जिस क़दर नफ़रत बढ़ाई उतनी ही क़ुर्बत बढ़ी
हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
ख़मोशी मेरी मअनी-ख़ेज़ थी ऐ आरज़ू कितनी
हर इक शाम कहती है फिर सुब्ह होगी
वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
भोले बन कर हाल न पूछ बहते हैं अश्क तो बहने दो
वअ'दा सच्चा है कि झूटा मुझे मालूम न था