हर इक शाम कहती है फिर सुब्ह होगी
अँधेरे में सूरज नज़र आ रहा है
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आज बे-आप हो गए हम भी
जो दिल रखते हैं सीने में वो काफ़िर हो नहीं सकते
हाँ दीद का इक़रार अगर हो तो अभी हो
वहशत हम अपनी ब'अद-ए-फ़ना छोड़ जाएँ
हुस्न ओ इश्क़ की लाग में अक्सर छेड़ उधर से होती है
ये गुल खिल रहा है वो मुरझा रहा है
वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
आप अपने से बरहमी कैसी
ख़मोश जलने का दिल के कोई गवाह नहीं
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
न कर तलाश-ए-असर तीर है लगा न लगा