आप अपने से बरहमी कैसी
मैं नहीं कोई और है ये भी
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गँवा के दिल सा गुहर दर्द-ए-सर ख़रीद लिया
जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
नहीं वो अगली सी रौनक़ दयार-ए-हस्ती की
कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
जज़्ब-ए-निगाह-ए-शोबदा-गर देखते रहे
वो बन कर बे-ज़बाँ लेने को बैठे हैं ज़बाँ मुझ से
भोले बन कर हाल न पूछो बहते हैं अश्क तो बहने दो
हैं देस-बिदेस एक गुज़र और बसर में
वअ'दा सच्चा है कि झूटा मुझे मालूम न था
नाले हैं दिलसिताँ तो फिर आहें हैं बर्छियाँ तो फिर
दोस्त ने दिल को तोड़ के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दिया
दिल मुकद्दर है आईना-रू का