कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
दोस्त दुश्मन की शान से निकला
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करम उन का ख़ुद है बढ़ कर मिरी हद्द-ए-इल्तिजा से
ख़मोशी मेरी मअनी-ख़ेज़ थी ऐ आरज़ू कितनी
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है
कुछ तो मिल जाए लब-ए-शीरीं से
क़ुर्बत बढ़ा बढ़ा कर बे-ख़ुद बना रहे हैं
तड़पते दिल को न ले इज़्तिराब लेता जा
वो हाथ मार पलट कर जो कर दे काम तमाम
तस्कीन-ए-दिल का ये क्या क़रीना
तेरे तो ढंग हैं यही अपना बना के छोड़ दे
मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
कुछ कहते कहते इशारों में शर्मा के किसी का रह जाना