मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
जहाँ तक कोई अहद-ओ-पैमाँ नहीं है
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दोस्त ने दिल को तोड़ के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दिया
कम न थी तेग़ से अदा-ए-ख़िराम
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
लालच भरी मोहब्बत नज़रों से गिर न जाए
किस मस्त अदा से आँख लड़ी मतवाला बना लहरा के गिरा
गोरे गोरे चाँद से मुँह पर काली काली आँखें हैं
वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
तू कहता है ख़ालिक़-ए-शर-ओ-ख़ैर नहीं
आज बे-आप हो गए हम भी
शौक़ चढ़ती धूप जाता वक़्त घटती छाँव है
सीने में ज़ब्त-ए-ग़म से छाला उभर रहा है
दूर थे होश-ओ-हवास अपने से भी बेगाना था