शौक़ चढ़ती धूप जाता वक़्त घटती छाँव है
बा-वफ़ा जो आज हैं कल बे-वफ़ा हो जाएँगे
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कुछ दिन की रौनक़ बरसों का जीना
वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
इस छेड़ में बनते हैं होश्यार भी दीवाने
मुझे रहने को वो मिला है घर कि जो आफ़तों की है रहगुज़र
गँवा के दिल सा गुहर दर्द-ए-सर ख़रीद लिया
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
हम आज खाएँगे इक तीर इम्तिहाँ के लिए
बुरी सरिश्त न बदली जगह बदलने से
वो बन कर बे-ज़बाँ लेने को बैठे हैं ज़बाँ मुझ से
जिन रातों में नींद उड़ जाती है क्या क़हर की रातें होती हैं
किस काम की ऐसी सच्चाई जो तोड़ दे उम्मीदें दिल की
उस की तो एक दिल-लगी अपना बना के छोड़ दे