कुछ कहते कहते इशारों में शर्मा के किसी का रह जाना
वो मेरा समझ कर कुछ का कुछ जो कहना न था सब कह जाना
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ऐ जज़्ब-ए-मोहब्बत तू ही बता क्यूँकर न असर ले दिल ही तो है
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
ये दास्तान-ए-दिल है क्या हो अदा ज़बाँ से
है मोहब्बत ऐसी बंधी गिरह जो न एक हाथ से खुल सके
दिल की ज़िद इस लिए रख ली थी कि आ जाए क़रार
दो तुंद हवाओं पर बुनियाद है तूफ़ाँ की
किस गुल की बू है दामन-ए-दिल में बसी हुई
वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
फेर जो पड़ना था क़िस्मत में वो हस्ब-ए-मामूल पड़ा
जज़्ब-ए-निगाह-ए-शोबदा-गर देखते रहे
ख़िज़ाँ का भेस बना कर बहार ने मारा