हद से टकराती है जो शय वो पलटती है ज़रूर
ख़ुद भी रोएँगे ग़रीबों को रुलाने वाले
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कुछ तो मिल जाए लब-ए-शीरीं से
कुछ मैं ने कही है न अभी उस ने सुनी है
न कर तलाश-ए-असर तीर है लगा न लगा
यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी
नाले मजबूरों के ख़ाली नहीं जाने वाले
किस काम की ऐसी सच्चाई जो तोड़ दे उम्मीदें दिल की
नज़र उस चश्म पे है जाम लिए बैठा हूँ
शौक़ चढ़ती धूप जाता वक़्त घटती छाँव है
मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए
हम आज खाएँगे इक तीर इम्तिहाँ के लिए
तू ने ऐ इंक़लाब क्या ख़ल्क़ किया
वो हाथ मार पलट कर जो कर दे काम तमाम