नाम मंसूर का क़िस्मत ने उछाला वर्ना
है यहाँ कौन सा हक़-गो कि सर-ए-दार नहीं
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वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
कर पहले दिल पे क़ाबू जामे की फिर ख़बर ले
ये गुल खिल रहा है वो मुरझा रहा है
आप अपने से बरहमी कैसी
न कोई जल्वती न कोई ख़ल्वती न कोई ख़ास था न कोई आम था
तेरे तो ढंग हैं यही अपना बना के छोड़ दे
जवाब देने के बदले वो शक्ल देखते हैं
बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
वो पलट के जल्द न आएँगे ये अयाँ है तर्ज़-ए-ख़िराम से
उस की तो एक दिल-लगी अपना बना के छोड़ दे
अपनी अपनी गर्दिश-ए-रफ़्तार पूरी कर तो लें
देखें महशर में उन से क्या ठहरे