निगाहें इस क़दर क़ातिल कि उफ़ उफ़
अदाएँ इस क़दर प्यारी कि तौबा
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हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
रस उन आँखों का है कहने को ज़रा सा पानी
जो कान लगा कर सुनते हैं क्या जानें रुमूज़ मोहब्बत के
तुम्हें क्या काम नालों से तुम्हें क्या काम आहों से
देखें महशर में उन से क्या ठहरे
आने में झिझक मिलने में हया तुम और कहीं हम और कहीं
वो क्या लिखता जिसे इंकार करते भी हिजाब आया
क्यूँ किसी रह-रौ से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ' भी थी परवाना भी
लालच भरी मोहब्बत नज़रों से गिर न जाए
हम आज खाएँगे इक तीर इम्तिहाँ के लिए