फैल गई बालों में सपेदी चौंक ज़रा करवट तो बदल
शाम से ग़ाफ़िल सोने वाले देख तो कितनी रात रही
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नज़र उस चश्म पे है जाम लिए बैठा हूँ
मोहब्बत वहीं तक है सच्ची मोहब्बत
जितना था सरगर्म-ए-कार उतना ही दिल नाकाम था
जो बुत है यहाँ अपनी जा एक ही है
फिर चाहे तो न आना ओ आन-बान वाले
हमारी नाकामी-ए-वफ़ा ने ज़माने की खोल दी हैं आँखें
ख़िज़ाँ का भेस बना कर बहार ने मारा
नज़र बचा के जो आँसू किए थे मैं ने पाक
आप अपने से बरहमी कैसी
वो क़िस्सा-ए-दर्द-आगीं चुप कर दिया था जिस ने
मीर-ए-महफ़िल न हुए गर्मी-ए-महफ़िल तो हुए
कह के ये और कुछ कहा न गया