आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
तुम भी उठाओ हाथ कि मौसम दुआ का है
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मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत
उस अब्र से भी क़बाहत ज़ियादा होती है
मोहब्बतें भी उसी आदमी का हिस्सा थीं
सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई
वो सारी बातें मैं अहबाब ही से कहता हूँ
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
एक नज़्म
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे