मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
आदमी हूँ सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर
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बहुत से लोगों को मैं भी ग़लत समझता हूँ
हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
ये लोग ख़्वाब बहुत कर्बला के देखते हैं
कोई हमदम नहीं दुनिया में लेकिन
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
हम अहल-ए-ख़ौफ़
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है