हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
अभी मुझे कई सहराओं से गुज़रना है
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बारिश की नज़्म
हम अहल-ए-ख़ौफ़
पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत
मिरे शजर तुझे मौसम नया बनाते रहें
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है
अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
बहुत से लोगों को मैं भी ग़लत समझता हूँ
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
कोई हमदम नहीं दुनिया में लेकिन