हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
ये कब किसी को ज़फ़र-याब देख सकते हैं
Anwar Masood
Jaun Eliya
Habib Jalib
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Gulzar
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शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
चमन वही कि जहाँ पर लबों के फूल खिलें
यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा