जब तलक आज़ाद थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
जब पड़ी ज़ंजीर पैरों में सफ़र अच्छे लगे
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आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत
मिरे लोग ख़ेमा-ए-सब्र में मिरे शहर गर्द-ए-मलाल में
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ
वो सारी बातें मैं अहबाब ही से कहता हूँ
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
बारिश की नज़्म
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है