वो सारी बातें मैं अहबाब ही से कहता हूँ
मुझे हरीफ़ को जो कुछ सुनाना होता है
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वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
एक नज़्म
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है