पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
नए मकान का नक़्शा बनाता रहता हूँ
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मिरे शजर तुझे मौसम नया बनाते रहें
ख़ुशी भी अब सरापा ग़म लगे है
जब तलक आज़ाद थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है
अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
हरीफ़ कोई नहीं दूसरा बड़ा मेरा
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे