फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
काँटों की सम्त भी तो निगाहें उठा के देख
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ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
उस अब्र से भी क़बाहत ज़ियादा होती है
सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है