परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
कि बस्तियों का मुक़द्दर बदलता जाता है
Javed Akhtar
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Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Anwar Masood
Rahat Indori
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
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ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
मिरी अना मिरे दुश्मन को ताज़ियाना है
मोहब्बतें भी उसी आदमी का हिस्सा थीं
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
जब तलक आज़ाद थे हर इक मसाफ़त थी वबाल
मुझे भी वहशत-ए-सहरा पुकार मैं भी हूँ
शाख़ से टूट के पत्ते ने ये दिल में सोचा
मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर
रौशनी में किस क़दर दीवार-ओ-दर अच्छे लगे
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
ये जो शाम ज़र-निगार है