गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
एक ही रंग है दुनिया को जिधर से देखा
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वो एक नाम जो दरिया भी है किनारा भी
फूलों की ताज़गी ही नहीं देखने की चीज़
सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
बारिश की नज़्म
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
हवा दरख़्तों से कहती है दुख के लहजे में
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है