वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
जहाँ सरों को झुकाए ज़माना होता है
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यही नहीं कि मिरा घर बदलता जाता है
ये जो शाम ज़र-निगार है
तल्ख़ियाँ
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
ये धूप छाँव के असरार क्या बताते हैं
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
जो लोग रातों को जागते थे
तलब की राहों में सारे आलम नए नए से