जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
मैं उस के हुस्न पे इक रोज़ ख़ाक डाल आया
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वहाँ भी मुझ को ख़ुदा सर-बुलंद रखता है
वो सारी बातें मैं अहबाब ही से कहता हूँ
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
चमन वही कि जहाँ पर लबों के फूल खिलें
अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
गाँव की आँख से बस्ती की नज़र से देखा
ये धूप छाँव के असरार क्या बताते हैं
चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था