चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था
छेड़ने को मुझे फिर मेरी अना पूछती है
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ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है
बारिश की नज़्म
देखने के लिए सारा आलम भी कम
बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
रास्ता कोई सफ़र कोई मसाफ़त कोई
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
बहुत से लोगों को मैं भी ग़लत समझता हूँ
अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं