बहुत से लोगों को मैं भी ग़लत समझता हूँ
बहुत से लोग मुझे भी बुरा बताते हैं
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अजब दिन थे कि इन आँखों में कोई ख़्वाब रहता था
हम अहल-ए-ख़ौफ़
पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
मौसम-ए-हिज्र तो दाइम है न रुख़्सत होगा
हरीफ़ कोई नहीं दूसरा बड़ा मेरा
हवा हवस के इलाक़े दिखा रही है मुझे
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
जो अक्स-ए-यार तह-ए-आब देख सकते हैं
कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
अभी ज़मीन को सौदा बहुत सरों का है