मिरे बदन पे ज़मानों की ज़ंग है लेकिन
मैं कैसे देखूँ शिकस्ता है आइना मेरा
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वक़्त इक दरिया है दरिया सब बहा ले जाएगा
तकल्लुफ़ात की नज़्मों का सिलसिला है सिवा
शाख़ से फूल से क्या उस का पता पूछती है
बिछड़ के तुझ से किसी दूसरे पे मरना है
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
चश्म-ए-इंकार में इक़रार भी हो सकता था
परिंद क्यूँ मिरी शाख़ों से ख़ौफ़ खाते हैं
ये लोग ख़्वाब बहुत कर्बला के देखते हैं
लेता नहीं किसी का पस-ए-मर्ग कोई नाम
बड़े नादान थे हम रेत को आब-ए-रवाँ समझे
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं