बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा
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'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ
मिस्ल-ए-बाद-ए-सबा तेरे कूचे में ऐ जान-ए-जाँ आए हैं
ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
फ़र्ज़ानों की इस बस्ती में एक अजब सौदाई है
दरवाज़ा खुला है कि कोई लौट न जाए
फिर कोई नया ज़ख़्म नया दर्द अता हो
साया मेरा साया वो
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं