बहुत छोटे हैं मुझ से मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझ से बड़ा है
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कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
उस ने मिरी निगाह के सारे सुख़न समझ लिए
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ
न शाम है न सवेरा अजब दयार में हूँ
मिस्ल-ए-बाद-ए-सबा तेरे कूचे में ऐ जान-ए-जाँ आए हैं
वो दौर क़रीब आ रहा है
बे-नियाज़ाना हर इक राह से गुज़रा भी करो
वो इश्क़ जो हम से रूठ गया अब उस का हाल बताएँ क्या
क्या वक़्त पड़ा है तिरे आशुफ़्ता-सरों पर