अंधेरा इतना है अब शहर के मुहाफ़िज़ को
हर एक रात कोई घर जलाना पड़ता है
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जुनूँ-नवाज़ सफ़र का ख़याल क्यूँ आया
हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा
वक़्त जब राह की दीवार हुआ
ख़ाक ओ ख़ला का हिसार और मैं
'शफ़क़' का रंग कितने वालेहाना-पन से बिखरा है
ज़ौक़-ए-अमल के सामने दूरी सिमट गई
न जाने कौन अपाहिज बना रहा है हमें
बहुत दिनों से इधर उस को याद भी न किया
यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है
रात इक शख़्स बहुत याद आया